अस्पतालों की बड़ी खामी: 24 घंटे इमरजेंसी यूनिट न होने से खतरा बढ़ा

भोपाल
भारत में मानसिक स्वास्थ्य का संकट अब एक 'इमरजेंसी चुनौती' बन चुका है, जिसे नजरअंदाज करना जानलेवा साबित हो रहा है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश में हर तीन मिनट में एक व्यक्ति आत्महत्या कर रहा है। चिंताजनक यह है कि इनमें से अधिकांश लोगों को कभी कोई मानसिक उपचार नहीं मिला। गांधी मेडिकल कॉलेज की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. रुचि सोनी इसे एक मूक महामारी बताती हैं। डॉ. सोनी का मत है कि मानसिक स्वास्थ्य संकट समय नहीं देखता। हमें ऐसी व्यवस्था चाहिए, जहां रात के दो बजे भी किसी संकटग्रस्त व्यक्ति को तत्काल मदद मिल सके।
शरीर चीखता है, मन चुप रह जाता है
डॉ. सोनी के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य की आपातकालीन स्थितियां उतनी ही खतरनाक हैं, जितना अचानक हार्ट अटैक आना। वे कहती हैं कि फर्क बस इतना है कि शरीर चीखता है और मन चुप रह जाता है। मानसिक स्वास्थ्य इमरजेंसी तब आती है, जब किसी व्यक्ति के विचार, व्यवहार या भावनाएं अचानक खुद के या दूसरों के लिए खतरा बन जाती हैं। जैसे बार-बार आत्मघाती विचार आना, पैनिक अटैक या हिंसक व्यवहार। यह वह नाजुक दौर होता है, जहां उपचार में एक मिनट की देरी भी जिंदगी छीन सकती है।
हर जिले में 24 घंटे मदद जरूरी
इस मूक महामारी को रोकने के लिए व्यापक बदलाव आवश्यक हैं। डॉ. सोनी ने हर जिले में सुधार की राह सुझाई है। यह आवश्यक है कि हर जिला अस्पताल में 24 घंटे सातों दिन साइकेट्रिक इमरजेंसी यूनिट स्थापित हो। साथ ही डाक्टरों, नर्सों और पैरामेडिक्स को संकट प्रबंधन का विशेष प्रशिक्षण दिया जाए। टेली-साइकेट्री सेवाओं का विस्तार किया जाना चाहिए, ताकि दूरस्थ क्षेत्रों तक विशेषज्ञ मदद पहुंचे। इसके अतिरिक्त स्कूलों और कालेजों में मेंटल हेल्थ फर्स्ट एड ट्रेनिंग शुरू करना समय की मांग है, जिससे हर व्यक्ति अपने आसपास के संकट को पहचान कर तुरंत सहायता प्रदान कर सके।
इमरजेंसी रेफरल की त्रासदी
वर्तमान में देश के बहुत कम अस्पतालों में 24 घंटे सातों दिन साइकेट्रिक इमरजेंसी यूनिट उपलब्ध है। जब कोलार के एक बैंक अधिकारी ने नींद की गोलियां खा लीं या शाहपुरा की 24 वर्षीय छात्रा परीक्षा से पहले पैनिक अटैक के कारण बेहोश हो गईं, तो दोनों मामलों में शुरुआती इलाज के बाद उन्हें मानसिक रोग विभाग में रेफर किया गया। यही रेफरल और सही इमरजेंसी सुविधा का अभाव कीमती समय नष्ट कर देता है। जिला और छोटे शहरों में प्रशिक्षित मनोरोग चिकित्सकों की भारी कमी है, जिसके कारण परिवार को ही संकट संभालना पड़ता है, और यही देरी अक्सर जिंदगी छीन लेती है।